उफ़ !! ये मेरी अनगिनत ख्वाहिशे ,
करू गौर तो किन किन पर ?
दू तवज्जो तो में किस को ?
की एक तामीर नहीं हुई,
और अगली खड़ी है सिरहाने पर,
एक रूठी हुई है ,
और अगली अडी है मनाने में !
न जाने क्यों इन्हें लगता है की,
मैं एक जरिया हू इनके अंजाम का ,
न जाने क्यों सोचती है की ,
में सुबह हू इनके शाम का !
अरे जरा रहम तो करो की,
में राही हू मेरा कोई मकाम नहीं!
एक छत सी तो है पर ,
रात गुजारने को कोई मकान नहीं !
दिल में लगी आग से ,
आँखों की नमी जलती रही ,
इन ख्वहिशो के ताने बने में अब ,
मुझे अपनी ही कमी खलनी लगी !
very nice poem!
ReplyDelete